भुगतान- संतुलन का अर्थ | परिभाषा | महत्व | भुगतान शेष में असंतुलन के कारण
भुगतान- संतुलन का अर्थ
(Meaning and definition of Balance of payment) 'भुगतान- संतुलन' का आशय देश के समस्त आयात-निर्यात तथा अन्य सेवाओं के मूल्यों के सम्पूर्ण विवरणसे है। यह विवरण तैयार करते समय दोहरी प्रविष्टि प्रणाली का उपयोग किया जाता है, जिसमें शेष विश्व के साथ किसी देश के लेखे का ब्यौरा रहता है। इसमें लेन-देन के दो पक्ष होते हैं। एक ओर तो देश की विदेशी मुद्रा की रहता है, जिसे ऋणात्मक पक्ष कहते हैं। लेनदारियों का ब्यौरा रहता है, जिसे धनात्मक पक्ष कहते हैं तथा दूसरी ओर उस देश की समस्त देनदारियों का ब्यौरा है।
भुगतान संतुलन की परिभाषा
भुगतान संतुलन को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है 1. प्रो. बेनहम (Prof. Benham) "किसी देश का भुगतान संतुलन उसका शेष विश्व के साथ एक समयावधि में किये जाने वाले मौद्रिक लेन-देन का विवरण है, जबकि व्यापार-संतुलन एक निश्चित अवधि में उसके आयातों एवं निर्यातों के बीच सम्बन्ध है। "
भुगतान- संतुलन का महत्त्व (Importance of Balance of Payment)
भुगतान-संतुलन का महत्व निम्नांकित बातों से स्पष्ट हो जाता :
1. अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति की जानकारी
भुगतान-संतुलन के विश्लेषण की सहायता से हम किसी देश की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और यदि भुगतान संतुलन में घाटा हो तो इसे सुधारने के लिए कौन-सी नीतियाँ अपनाई जानी चाहिए। इस बात पर विचार किया जा सकता है।
2. विदेशी व्यापार की प्रवृत्ति का ज्ञान-
भुगतान संतुलन का अध्ययन हमें यह जानने में सहायक होता है कि किसी देश की विदेशी व्यापार की प्रवृत्ति क्या है, क्योंकि विदेशी व्यापार को भुगतान संतुलन की सबसे प्रमुख व महत्वपूर्ण मद माना जाता है। हम यह भी जान सकते हैं कि देश के कुल निर्यातों व कुल आयातों का मूल्य क्या है।
3. विदेशी ऋण एवं भुगतान विधि की जानकारी- भुगतान-संतुलन के विश्लेषण से हम इस बात का पता भी लगा सकते हैं कि एक देश को कितने विदेशी दायित्वों का भुगतान करना है और यह भुगतान वह किस विधि से कर रहा है- वस्तुओं का निर्यात करके या विदेशी जमा कर उपयोग करके अथवा उपहार प्राप्त करके।
4. विदेशी विनिमय कोष की स्थिति का ज्ञान-
भुगतान संतुलन के विवेचन से हम यह भी जान सकते हैं कि एक देश मुद्रा का ऋण ले रहा है या दे रहा है, उसके विदेशी विनिमय कोषों में वृद्धि हो रही है या कमी तथा उसकी मौद्रिक नीति एवं नियंत्रणकारी उपाय कहाँ तक प्रभावकारी सिद्ध हुए हैं।
5. मुद्रा के अवमूल्यन का प्रभाव - भुगतान संतुलन का अध्ययन हमें यह जानकारी प्राप्त करने में भी सहायक होता है कि उस देश की मुद्रा के अवमूल्यन का क्या प्रभाव हुआ है। चालू खाते से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो सकता है कि अवमूल्यन से देश के निर्यातों में वृद्धि हुई है या नहीं।
6. राष्ट्रीय आय पर प्रभाव - भुगतान संतुलन के विश्लेषण से हम यह भी जान सकते हैं कि विदेशी व्यापार एवं लेन-देन का देश की राष्ट्रीय आय पर क्या प्रभाव हुआ है।
7. भिन्न-भिन्न मुद्राओं वाले देश के साथ भुगतान शेष की स्थिति का ज्ञान- यह जरूरी नहीं कि किसी देश का भुगतान-शेष भिन्न-भिन्न मुद्राओं वाले देशों के साथ एक समान रहे। किसी देश के साथ भुगतान संतुलन में घाटे की स्थिति हो सकती है तो अन्य देश के साथ भुगतान संतुलन में अतिरेक की स्थिति भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, अमरीका तथा डॉलर क्षेत्र के देशों के साथ भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति घाटे की रहे और दूसरे देशों के साथ भुगतान संतुलन की स्थिति अतिरेक की रहे।
8. आर्थिक बेरोमीटर (Economic Barometer)- भुगतान संतुलन आर्थिक बेरोमीटर कहा जाता है जो देश तथा विदेश में देश की शोधन क्षमता का मापक होता है। इसलिए प्रो. जेवन्स ने एक स्थान पर लिखा है कि एक अन्तर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र के लिए भुगतान-शेष का वही महत्व होता है जो एक रसायन शास्त्री के लिए तत्वों की आवधिक तालिका का होता है।"
भुगतान शेष में असंतुलन के कारण
(Causes of disequilibrium in Balance of Payment)
किसी देश में भुगतान शेष में असंतुलन के कारण सामान्यतया निम्नलिखित हो सकते हैं-
1. विकास एवं विनियोग कार्यक्रम (Development and investment programmes) – किसी देश में और विशेषतः अल्पविकसित देशों में भुगतान शेष में असंतुलन होने का प्रमुख कारण वहाँ भारी मात्रा में विकास एवं विनियोग सम्बन्धी कार्यक्रम हैं। ऐसे देश में द्रुतगति से औद्योगीकरण एवं आर्थिक विकास की अत्यन्त आवश्यकता रहती है, किन्तु संसाधनों का अभाव रहता है। अर्थात् पूँजी तथा अन्य साधनों की अपर्याप्तता रहती है जिनका अन्य देशों से आयात करना पड़ता है। इस प्रकार इन देशों के आवात में जिस अनुपात में वृद्धि होती है उस अनुपात में निर्यातों में वृद्धि नहीं हो पाती, क्योंकि प्रारम्भिक अवस्था में देश केवल चुनिंदा वस्तुओं का ही निर्यात करते हैं। दूसरी ओर, जब औद्योगीकरण की प्रक्रिया शुरू होती है तो ऐसी वस्तुओं की खपत स्वयं देश में ही बढ़ जाती है, जिनका पहले देश से निर्यात किया जाता था। दूसरे शब्दों में, भुगतान-शेष में संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं, जिसके फलस्वरूप संरचनात्मक असंतुलन पैदा हो जाता है।
2. चक्रीय उच्चावचन (Cyclical fluctuations)- व्यापार चक्रों के फलस्वरूप भिन्न-भिन्न देशों में,भिन्न-भिन्न अर्थव्यवस्थाओं में चक्रीय उच्चावचन होते हैं, जिनकी अवस्थाएँ (Stages) भिन्न-भिन्न देश में भिन्न-भिन्न होती हैं। अतः भुगतान शेष में चक्रीय असंतुलन पैदा हो जाता है। ऐसा असंतुलन 1930 के आसपास विश्व के भुगतान शेष में पाया गया था।
3. आय-प्रभाव एवं कीमत प्रभाव (Income effect and Price effect)- विकासशील देशों में आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप लोगों की आय में वृद्धि होती है, जिससे कीमतें भी बढ़ने लगती हैं। इनका देश के भुगतान शेष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आय में वृद्धि से इन देशों के आयात में भी वृद्धि होती है, क्योंकि सीमान्त आयात प्रवृत्ति (Marginal propensity to import) ऊँची होती है। साथ ही ऐसे देश में सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति भी ऊँची होती है। अतः घरेलू उपभोग की वस्तुओं की माँग भी बढ़ जाती है, फलस्वरूप इनके पास निर्यात की वस्तुओं की कमी हो जाती है।
4. विनियोग व उत्पादन में अन्तराल (Time lag between investment and production) विकासशील देशों में भारी उद्योगों में विशाल मात्रा में विनियोग किया जाता है। इसका मुद्रास्फीतिक प्रभाव होता है, क्योंकि अन्तिम उत्पादन होने में काफी समय लगता है, जबकि बढ़ी हुई मुद्रा लोगों के हाथों में पहुँच जाती है। परिणामस्वरूप, वस्तुओं की माँग में वृद्धि होने से उनकी कीमतें बढ़ने लगती हैं। इस कारण आयातों को प्रोत्साहन मिलता है और निर्यात हतोत्साहित होते हैं। इस प्रकार देश में भुगतान शेष में असंतुलन पैदा हो जाता है।
5. निर्यात माँग में परिवर्तन (Change in export demand)- विकासशील देशों द्वारा निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की माँग में परिवर्तन हो जाता है। इसलिए भी भुगतान शेष में असंतुलन हो जाता है। आज विकसित देश खाद्यान्न, कच्चे माल एवं वैकल्पिक वस्तुओं का उत्पादन करने लगे हैं, जबकि पहले वे इनका आयात करते थे। इस कारण विकासशील देशों के निर्यात कम हो गये हैं तथा भुगतान शेष में संरचनात्मक असंतुलन (Structural imbalance) पैदा हो गया है। असंतुलन की समस्या अधिक व्यापक है।
6. विकसित देशों द्वारा आयात पर प्रतिबन्ध लगाना (Import restriction by developed countries)- विकसित देशों में अनुकूल व्यापार शर्तों व अन्य कारणों से भुगतान शेष अतिरेक की स्थिति रहती है। यदि ये देश विकासशील देशों से आयात करते रहें तो विकासशील देशों के भुगतान शेष के असंतुलन में सुधार हो सकता है, किन्तु विकसित देश तरह-तरह के आयात प्रतिबन्ध लगा देते हैं, जिससे विकासशील देशों के निर्यात में वृद्धि नहीं हो पाती और उनके भुगतान शेष में असंतुलन बना रहता है।
7. प्रदर्शन प्रभाव (Demostration Effect)- प्रो. नर्कसे का मत है कि जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में राजनैतिक परिस्थितियों तथा अन्य सामाजिक कारणों से विकासशील देश विकसित देशों के सम्पर्क में आते हैं तो वहाँ के लोग विकसित देशों के लोगों की उपभोग आदतों का अनुसरण करने के लिए प्रवृत्त होते हैं तथा पाश्चात्य तड़क भड़क को अपनाने लगते हैं। अतः ऐसी वस्तुओं का विदेशों से आयात किया जाता है। इस प्रकार आयात बढ़ने से और निर्यात यथास्थिर रहने से भुगतान शेष का असंतुलन बढ़ जाता है।
8. अन्तर्राष्ट्रीय ऋण एवं विनियोग (International loans and investments)- अपने विकास कार्यक्रमों के अर्थ-प्रबन्धन के लिए अनेक विकासशील देश विकसित देशों से भारी मात्रा में ऋण लेते हैं, जिसके ब्याज एवं मूलधन की वापसी के लिए उन्हें अधिक विदेशी विनिमय खर्च करना पड़ता है। फलस्वरूप भुगतान शेष में असंतुलन पैदा हो जाता है। जो देश ऋण प्रदान करते हैं, उनका भुगतान शेष अनुकूल रहता है, क्योंकि ब्याज आदि के रूप में उन्हें विदेशी विनिमय की प्राप्ति होती है।












